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कहाँ थमेगा

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 एक-एक पल बीता, एक-एक दिन बीत गये,


मास गये पल-पल कर औ’ कुछ साल गये,
कितने सूरज जन्मे और बड़े होकर

अपनी रक्तिम किरणे जग को दिया किये।
कितने सूरज उदित हुए फिर अस्त हुए;
अंतर के स्वर को दाबे सा मौन-मौन
लेकिन प्रश्न एक है,अब भी वहीं खड़ा,

कह दो, आज तुम्हें युग की सौगन्ध है, युग-
बचपन और बुढ़ापे का भ्रम कहा थमेगा ?
चलता जन्म-मरण का पहिया कहाँ थमेगा ?

उपजी बूँद ओस की और फिर फूट गयी,
तो फिर उसके जीवन का मतलब क्या था ,
पतझड़ को यदि फिर शासक बन आना था,
तो सावन के यौवन का मतलब क्या था ?
अगन की तपन अगर निरंकुश बनती थी,
पानी के बेबस मन का मतलब क्या था ?
कहाँ रुपहले सपनो का वह सौदागर,

आज वही सब प्रश्नो का उत्तर देगा –
स्वपन -महल का छनभर बनना कहाँ थमेगा ?
चलता जन्म -मरण का पहिया कहाँ थमेगा ?

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