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मधुशाला

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मृदु भावों के अंगूरों की

आज बना लाया हाला,
प्रियतम,अपने ही हाथो से
आज पिलाऊंगा प्याला;
पहले भोग लगा लूँ तुझको
फिर प्रसाद जग पायेगा;
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती मेरी मधुशाला।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर
पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर
नाचूँगा लेकर प्याला;
जीवन की मधुता तो तेरे
ऊपर कब का वार चुका
आज निछावर कर दूंगा मैं
तुझ पर जग की मधुशाला।

प्रियतम, तू मेरी हाला है,
मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू
बनता है पीनेवाला;
मैं तुझको छक छलका करता,
मस्त मुझे पी तू होता;
एक दूसरे को हम दोनों
आज परस्पर मधुशाला।

भावुकता अंगूर लता से
खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है
भरकर कविता का प्याला;
कभी न छड़ भर खाली होगा
लाख पिए, दो लाख पिए
पाठकगढ़ है पीनेवाले,
पुस्तक मेरी मधुशाला।

मधुर भावनाओ की सुमधुर
नित्य बनाता हूँ हाला
भरता हूँ इस मधु से अपने
अंतर का प्यासा प्याला;
उठा कल्पना के हाथों से
स्वयं उसे पी जाता हूँ
अपने ही में हूँ मै साकी,
पीनेवाला, मधुशाला

मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला,
किस पथ से जाऊँ? असमंजस
में है वह भोलाभाला;
अलग अलग पथ बतलाते सब
पर मै यह बतलाता हूँ …
राह पकड़ तू एक चला चल,
पा जायेगा मधुशाला ।

चलने ही चलने में कितना
जीवन हाय बिता डाला
‘दूर अभी है, पर कहता है
हर पथ बतलाने वाला;
हिम्मत है न बढ़ू आगे को
सहस है न फिरू पीछे
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर
दूर खड़ी है मधुशाला

मुख से तू अविरल कहता जा
मधु,मदिरा मादक हाला
हाथों में अनुभव करता जा
एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किये जा मन में सुमधुर ,
सुखकर सुन्दर सकी का;
और बढ़ा चल,पथिक,न तुझको
दूर लगेगी मधुशाला

मदिरा पीने की अभिलाषा
ही बन जाये अब हाला,
अधरों की आतुरता में ही
जब आभासित हो प्याला
बने ध्यान ही करते-करते
जब सकी साकार, सखे,
रहे न हाला,प्याला, सकी
तुझे मिलेगी मधुशाला

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